Sunday, 22 November 2015

नया सफ़र


फूल गुलिसतां बहारे,
मैं ये नज़ारे, सारे छोड़ रहा हु
बेडी सी बन गए है जो
ये बंधन सारे तोड़ रहा हु
अब नज़रो में बस वो सूरज है
जो क्षितिज पर देखो अभी भी चमक रहा है।
हो गयी हे देर थोड़ी
पर मेरे लिए देखो रुका हुआ है।

सुहानी रात तब तलक न आएगी
जब तलक ये माटी मूरत न बन जाएगी
खुद को को ज़र्रा ज़र्रा तोड़ कर
में मोतियो की एक माला जोड़ रहा हु।

हर कदम सफलता न मिले, न सही
अभी मंजिल का सफ़र बाकी है
एक खूबसूरत तस्वीर बनाने को
मैं लकीरो से लकीरे जोड़ रहा हूं ।

5 comments:

  1. खुद को को ज़र्रा ज़र्रा तोड़ कर
    में मोतियो की एक माला जोड़ रहा हु।.....
    kya khoob piroya hai shabdo ko aapne....

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