एक ये पर्वत है, जो खड़ा है वही, जहा था ये पहले भी
एक ये नदी है, जो बहती ही जा रही है कल कल कल सी |
ये नदी खुद के लिए रुक भी नहीं सकती,
और बंधा हुआ अपनी ज़मीन से, ये मिटटी का ढेला, हिल भी नही सकता |
देखता जा रहा है पर्वत अपने करीब से बहती नदी को, मिलना तो चाहता है वो, भी पर कह नही सकता |
बस यही उम्मीद बांधे रखी है उसे की होगी बारिश कभी,
जब उतरेगा पानी उसके उपर से और मिल जाएगा नदी में,
तब वो अपना जर्रा जर्रा मिला देगा नदी में,
और हो जाएगा उसका कभी |
पर अगर ये उम्मीद टूट जाये तो क्या
और आज ही हो जाये स्खलन तो क्या
टूट जाये पर्वत खुद की आग में
और उतार दे चट्टानों के बोझ खुद से तो क्या
तो न नदी ही रहेगी न पर्वत ही रहेगा ।
Saturday, 30 January 2016
वो पर्वत
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